प्रबंध का अर्थ, परिभाषा, विशेषता, महत्व, कार्य, उद्देश्य, सिद्धान्त

prabandh kya hai: हेल्लो दोस्तो, स्वागत है आपका ज्ञान का माध्यम ब्लॉग पर, आज हम प्रबन्ध (Management) के बारे में जानेंगे। अगर आप भी प्रबन्ध के बारे में जानना चाहते हो तो बिल्कुल सही जगह आए हो। चलिए जानते है प्रबन्ध (मैनेजमेंट) क्या है , परिभाषा, prabandh ka arth,prabandh ki visheshtaen,

Table of Contents

prabandh kya hai

प्रबंध से क्या समझते है?

प्रबंध क्या है ( what is management)?

    प्रबंध का अर्थ/ अभिप्राय:- 

                          प्रबन्ध किसी संगठन के पूर्व निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के उद्देश्य से निर्णय लेने तथा मानवीय क्रियाओं पर नियंत्रण करने की प्रक्रिया हैं।

                   प्रबन्ध एक सामाजिक प्रक्रिया हैं जी समाज के लोगो द्वारा , समाज के लिए, समाज में रहकर पूरी की जाती हैं।

      प्रबन्ध की परिभाषाएं :

Q. प्रबन्ध किसे कहते है?

Q.प्रबंध की परिभाषा दीजिए

मेरी पार्कर फोलेट (Mary Parker Follet):

इनके अनुसार “प्रबंध अन्य लोगों के माध्यम से कार्य करवाने की कला है”।

लारेंस एप्ले के अनुसार:

अन्य व्यक्तियों के प्रयासों से परिणाम प्राप्त करना ही प्रबंध है”।

क्रीटनर(Kreitner) के शब्दों में :

 प्रबंध परिवर्तनशील वातावरण में दूसरों के साथ तथा दूसरो से कार्य करवाने की प्रक्रिया हैं । सीमित संसाधनों का प्रभावी एंव कुशलतापूर्वक उपयोग करना इस प्रक्रिया का आधार हैं”।

हेनरी फेयोल के अनुसार:

 “प्रबंध से आशय पूर्वानुमान लगाना एवं योजना बनाना,आदेश देना, समन्वय करना तथा नियंत्रण करना है।”।

निष्कर्ष:

प्रबंध नियोजन संगठन निर्देशन तथा नियंत्रण आदि कि प्रक्रिया है,उपलब्ध संसाधनों का दक्षतापूर्वक तथा प्रभावपूर्ण तरीके से उपयोग करते हुए लोगों के कार्यों में समन्वय करना ताकि लक्ष्यों की प्राप्ति सुनिश्चित की जा सके।

प्रबंध में पारस्परिक रूप से संबंधित वह कार्य सम्मिलित हैं जिन्हें सभी प्रबंधक करते हैं।

प्रबंध की प्रमुख विशेषताएं या लक्षण/प्रकृति:

प्रबंध की कुछेक प्रमुख विशेषताएं निम्न लिखित है:-

  1. प्रबंध एक विशिष्ट कार्य है : 

                      प्रबंध शब्द का उपयोग विभिन्न अर्थो में किया जाता है किन्तु इसके व्यवस्थित शिक्षण – प्रशिक्षण एवं इसके व्यवहार में अपनाने की दृष्टि से इसे एक विशिष्ट कार्य के रूप में ही माना जाता है । टेरी तथा फ्रैंकलिन ने भी लिखा है कि ,” प्रबंध व्यक्ति नहीं बल्कि एक विशिष्ट कार्य है।

  1. मानवीय कार्य (Human activity) प्रबन्ध एक मानवीय कार्य है।:यह कार्य मनुष्यों द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है। प्रबन्ध कार्य में यन्त्रों (कम्प्यूटरों आदि) का उपयोग बढ़ा है किन्तु ये मनुष्यों का स्थान नहीं ले सकते हैं। प्रबन्ध विशेषज्ञ टैरी ने ठीक ही लिखा है कि “कम्प्यूटर प्रबन्ध में सहायता करते हैं किन्तु ये मानव का स्थान नहीं ले सकते हैं।” यह उल्लेखनीय है कि प्रबन्ध कार्य में कुछ दशकों पूर्व तक पुरुष वर्ग का ही आधिपत्य था किन्तु अब महिलाओं का भी इस कार्य में योगदान बढ़ता जा रहा है।
  1. मानवीय संगठनों के प्रबन्ध का कार्य (An activity for managernent of human ganisation):प्रबन्ध मानवीय संगठनों का ही किया जाता है। पशुओं का संगठन नहीं होता। मनुष् शुओं की भीड़ का प्रबन्ध सम्भव ही नहीं होता है। पशु भौतिक संसाधन मात्र होते हैं। कारलिसले arlisle) के अनुसार, “प्रबन्ध मानवीय संगठनों से सम्बन्धित कार्य है।” इसीलिए उन्होंने यह भी लखा है कि पशुओं का प्रशिक्षक प्रबन्धक नहीं होता है, जबकि मनुष्यों का प्रशिक्षक प्रबन्धक हो कता है।
  1. औपचारिक समूहों में सम्पन्न कार्य (It takes place in formal groups):प्रबन्ध कार्य पचारिक समूहों में ही सम्पन्न किया जा सकता है। असंगठित व्यक्तियों के समूह केवल भीड़ होती है जिनक बन्ध नहीं किया जा सकता है।
  1. अन्य व्यक्तियों से कार्य करवाने का कार्य (An activity for getting things dome rough others):प्रबन्ध अन्य व्यक्तियों से कार्य करवाने का कार्य है। प्रबन्धक अन्य लोगों से कार्य करवाते और वे स्वयं प्रबन्धकीय कार्य (नियोजन, संगठन, निर्देशन एवं नियन्त्रण) करते हैं। प्रो. कुंज ने ठीक हो खा है कि औपचारिक रूप से संगठित लोगों से कार्य करवाने की कला का नाम ही प्रबन्ध है।

6.उद्देश्यपूर्ण या सोद्देश्य कार्य (Purposeful activity): प्रबन्ध कार्य निरुदेश्य या लक्ष्यहीन नहीं ता है। प्रबन्ध के पूर्व निर्धारित कुछ उद्देश्य होते हैं। प्रबन्ध इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही मानवीय एवं तक संसाधनों के कुशलतम एवं कारगर उपयोग के लिए सतत किया जाने वाला कार्य है। कीटनर reitner) ने लिखा है कि “उद्देश्यों के बिना प्रबन्ध प्रक्रिया गंतव्य स्थल को निर्धारित किये बिना गयी यात्रा के समान है जो उद्देश्यहीन एवं निरर्थक होगी।”प्रबन्ध कार्य निरुदेश्य या लक्ष्यहीन नहीं ता है। प्रबन्ध के पूर्व निर्धारित कुछ उद्देश्य होते हैं। प्रबन्ध इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही मानवीय एवं तक संसाधनों के कुशलतम एवं कारगर उपयोग के लिए सतत किया जाने वाला कार्य है। कीटनर reitner) ने लिखा है कि “उद्देश्यों के बिना प्रबन्ध प्रक्रिया गंतव्य स्थल को निर्धारित किये बिना गयी यात्रा के समान है जो उद्देश्यहीन एवं निरर्थक होगी।”

7.वातावरणमूलक कार्य (Environment-oriented activity) :प्रबन्ध एक ऐसा कार्य है जो तावरणमूलक है। दूसरे शब्दों में, प्रबन्ध कार्य संस्था के अन्दर एवं बाहर के वातावरण से प्रभावित होता है या उसे प्रभावित भी करता है। आन्तरिक वातावरण में कर्मचारी तथा साधन होते हैं जबकि बाह्य वातावरण आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा तकनीको वातावरण होता है। यह सम्पूर्ण वातावरण एवं प्रबन्ध कार्य क-दूसरे को परस्पर रूप से प्रभावित करते रहते हैं। किन्तु यह ध्यान रहे कि कोई भी अकेली संस्था या सके प्रबन्धक बाह्य वातावरण को बहुत ही सीमित रूप में ही प्रभावित कर पाते हैं।

8.सृजनात्मक कार्य (Creative activity): प्रबन्ध एक सृजनात्मक कार्य है। यह कार्य मानवीय न्या भौतिक संसाधनों का इस प्रकार उपयोग करता है कि न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन या सफलता प्त की जा सके। यह साधनों की प्रभावशीलता एवं दक्षता (Effectiveness and efficiency) को बढ़ाकर अधिकाधिक उत्पादकता का सृजन करने में योगदान देता है। इसलिए ड्रकर ने इसे “प्रत्येक संस्था का वनदायी तत्व” (Life-giving element) माना है।

9.सार्वभौमिक क्रिया (Universal activity): प्रबन्ध एक सार्वभौमिक क्रिया है। यह छोटे, बड़े, र्मिक, राजनीतिक, सैनिक, सामाजिक, व्यावसायिक आदि संगठनों में की जाने वाली क्रिया है।

10.सभी स्तरों पर व्याप्त क्रिया (Pervasive at all levels) :प्रबन्ध प्रक्रिया संस्था के सभी न्तरों पर व्याप्त क्रिया है। दूसरे शब्दों में, उच्च प्रबन्धकों, मध्यमवर्गीय प्रबन्धक तथा पर्यवेक्षीय प्रबन्धकों सभी के द्वारा की जाने वाली क्रिया है।

       प्रबंध का महत्व

प्रबन्ध किसी न किसी रूप में मानव सभ्यता के विकासक्रम जिसमें मानव ने संगठित रूप से कार्य करना प्रारंभ किया विद्यमान था। कोई भी संगठित कार्य चाहे वह किसी भी क्षेत्र आर्थिक सामाजिक, राजनीतिक अथवा नायिक-में हो बिना प्रबंध के अपने उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार चाहे कोई भी देश हो या कोई भी आर्थिक प्रणाली हो या कोई भी याद हो, सभी में समान रूप से प्रबन्ध का महत्व है। इस संबंध में उर्मिक का निम्नलिखित कथन प्रबन्ध के महत्व को प्रदर्शित करता है कोई सिद्धान्त बाद अथवा राजनीतिक कल्पना सीमित मानवीय तथा भौतिक साधनों के उपयोग से एवं कम प्रयत्न द्वारा अधिक उत्पादन संभव नहीं बना सकते यह केवल प्रभावी प्रबन्ध से ही संभव है। इस अधिक उत्पादन के आधार पर जन-साधारण के उच्च जीवनस्तर अधिक आराम तथा अधिक सुविधाओं की नींव रखी जा सकती है।

आधुनिक युग में पूरे विश्व में प्रबन्ध की नई तकनीकों की खोज हो रही है ताकि विभिन्न संसाधनों को और अधिक ददा बनाया जा आज प्रबन्ध सबसे महत्वपूर्ण क्रिया बन गया है। प्रबंध अतीत में भी महत्वपूर्ण था और आज के परिवेश में इसका महत्व और अधिक हो गया है। इसके दो कारण है- प्रथम अतीत की तुलना में वर्तमान संगठनों का स्वरूप काफी बड़ा हो गया है। बड़े स्वरूप के

कारण निष्पादन में जटिलताएँ बहुत अधिक बढ़ गयी है, जिनका समाधान केवल प्रभावी प्रबन्ध द्वारा ही किया जा सकता है। द्वितीय व्यापार के वैश्वीकरण के फलस्वरूप प्रत्येक देश और उसके संगठनों को विश्वस्तरीय प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है।

आधुनिक युग में प्रबन्ध सर्वव्यापी है। यह सभी संस्थाओं के लिए अपरिहार्य या प्राथमिक आवश्यकता है। इसे आधुनिक गतिशील संस्थाओं की प्राणवायु या उनके हृदय की संज्ञा दें तो भी कोई अतिशयोकि नहीं होगी।

प्रबन्ध का महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही दिखायी देता है। यह यह साधन है जो साधनों की उत्पादकता, कर्मचारियों को आय एवं उपभोक्ताओं की सन्तुष्टि में अभिवृद्धि कर सम्पूर्ण संस्था की सफलता में योगदान देता है। यह देश के लोगों को खुशहाली प्रदान करने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। इसके द्वारा भौतिक साधनों का इस प्रकार उपयोग किया जा सकता है जिससे मानव जाति का अधिकाधिक कल्याण सम्भव हो सके। यह देश तथा संस्था के सर्वांगीण विकास में ही योगदान नहीं देता है बल्कि समाज के सभी वर्गों के हित के लिए बहुआयामी भूमिका भी निभाता है। अमरीकी प्रबन्ध विशेषज्ञ किलियन (Killian) ने भी लिखा है कि “प्रबन्धक साधनों के स्वामी की भूमिका स्वीकार कर उपक्रम, स्वामियों, कर्मचारियों तथा समाज

के हित के लिए मानवता का सेवक बन जाता है।” संक्षेप में, आधुनिक युग में प्रबन्ध को भूमिका बहुआयामी है। यह व्यावसायिक संस्था लिए ही नहीं बल्कि समाज एवं राष्ट्र के लिए भी महत्वपूर्ण शक्ति है। अतः इसके महत्व को भी हम निम्नलिखित तीन वर्गों में बाँटकर अध्ययन करें तो लेयस्कर होगा

  1. व्यावसायिक संस्थाओं के लिए महत्व।
  2. समाज के लिए महत्त्व

 III राष्ट्र के लिए महत्त्व।

  1. व्यावसायिक संस्थाओं के लिए महत्त्व:

 महान् प्रबन्धशास्त्री एवं विचारक पीटर एफ. ड्रकर ने व्यवसाय में प्रबन्ध के महत्व को उजागर करते हुए लिखा है कि “प्रबन्ध प्रत्येक व्यवसाय का गतिशील जीवनदायी अंग है।” (“Management is the dynamic, life-giving element of every business, Peter F. Drucker) वास्तव में यह व्यवसाय का वह अंग है जो व्यावसायिक जीवन में प्राण फूंकता है, उसे सफल तथा गतिशील बनाता है। संक्षेप में, व्यवसाय के सफल संचालन में प्रबन्ध की अति महत्वपूर्ण भूमिका है। उसकी भूमिका तथा महत्व को नीचे के कुछ शीर्षकों में स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं.

  1. उद्देश्यों एवं प्राथमिकताओं का निर्धारण (To determine objectives and priorities) :प्रत्येक व्यावसायिक संस्था की सफलता में सुदृढ़ उद्देश्यों एवं प्राथमिकताओं का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है।स्टोनर तथा बैंकल (Stoner and Wankel) का कहना है कि “चूंकि साधन सदैव सीमित होते हैं अतः प्रबन्धक को साधनों, लक्ष्यों तथा आवश्यकताओं में संतुलन स्थापित करना पड़ता है। वे (प्रबन्धक) विभिन्न प्रतिस्पद्धी उद्देश्यों में संतुलन स्थापित करने और उद्देश्यों की प्राथमिकताओं को निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।”

2.साधनों का अनुकूलतम उपयोग (Optimum utilisation of resources): प्रबन्ध यह साधन है जो सभी संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग कर सकता है। कुशल प्रबन्धक संस्था के भौतिक एवं मानवीय संसाधनों का इस प्रकार संयोजन करता है कि न्यूनतम प्रयासों तथा साधनों से अधिकतम उत्पादन एवं सफलता प्राप्त की जा सकती है। उर्विक तथा बैच (Urvick and Brech) का तो यहाँ तक कहना है कि कोई भी विचारधारा कोई भी बाद या कोई भी राजनीतिक सिद्धान्त उपलब्ध मानवीय एवं भौतिक संसाधनों के उपयोग तथा न्यूनतम प्रयासों से अधिकतम उत्पादन नहीं करवा सकता है। यह तो केवल अच्छे प्रबन्ध द्वारा ही सम्भव है 1″ स्पष्ट है कि प्रबन्ध वह साधन है जो न्यूनतम संसाधनों एवं प्रयासों से अधिकतम उत्पादन तथा सफलता के लक्ष्यों की पूर्ति में महान् योगदान दे सकता है। हरबर्ट एन. केसन (Herbert N. Casson) ठीक ही कहते हैं. प्रत्येक बड़ी संस्था में पूरी गाड़ी भर सोना छिपा होता है। साधनों का समुचित उपयोग करके तथा अपव्यय को रोककर इसे प्राप्त किया जा सकता है।”

ॐ संस्था की सफलता या लक्ष्यों की प्राप्ति (Success or achieverment of objectives of the enterprise) अच्छा प्रबन्ध सदैव ही सोद्देश्य या उद्देश्यपरक (Objective or goal-oriented) होता है। कुशल प्रबन्ध से हो संस्था के उद्देश्यों को यथासमय समुचित ढंग से प्राप्त किया जा सकता है और संस्था की सफलता को सुनिश्चित किया जा सकता है।

किलियन (Killian) ने लिखा है कि ‘प्रबन्ध के विद्यमान होने का सबसे बड़ा कारण यही है कि यह संस्था का सफलतापूर्वक संचालन करता है। वास्तव में यदि प्रबन्ध संस्था का कुशलतापूर्वकसंचालन करके लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर पाता है तो इसके होने या न होने का कोई अर्थ हो नहीं है।

  1. सामाजिक दृष्टि से महत्त्व :

प्रभावकारी प्रबन्ध सुदृढ़ समाज की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। इसकी समाज में एक महत्वपूर्ण भूमिका है। यह अनेक सामाजिक समस्याओं का समाधान कर सकता है। कुशल प्रबन्ध समाज को आशाओं का केन्द्र है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति स्व. कैनेडी (John F. Kennedy) ने प्रबन्ध के सामाजिक महत्त्व को स्पष्ट करते हुए बहुत ही सटीक लिखा था कि “हमारे समाज के मानवीय विकास में प्रबन्ध की क्रान्तिकारी भूमिका है। यह मानवीय एवं भौतिक संसाधनों के कारगर उपयोग से जीवन स्तर में सुधार करने की हमारे युग की महान् चुनौती को समझ सकता है।” वस्तुतः प्रभावकारी प्रबन्ध का सामाजिक दृष्टि से विशेष महत्व है। इसके महत्व को निम्नलिखित कुछ शीर्षकों में स्पष्ट करने का प्रयास करते है।

1.समाज के विभिन्न वर्गों के हितों में सामन्जस्य (Integrates interests of various sections of socicty) लूघर गुलिक (Luther Gulick) के अनुसार, “सभी संगठन कुछ सामाजिक समूहों के प्रति उत्तरदायी होते हैं। प्रबन्धक उन समूहों के साथ सम्बन्धों की कड़ी का कार्य करते है। वास्तव में, प्रभावकारी प्रबन्ध समाज के विभिन्न वर्गों के दिलों में स्थापित करने में महत् भूमिका निभा सकता है। उपभोक्ता विनियोजक, कर्मचारी, सरकार, नागरिक आदि समाज के प्रमुख वर्ग है। में इन सबके हितों में सामन्जस्य स्थापित करके आपसी संघर्षों को रोकता है। इसमें एकता एवं भाईचारे को बढ़ावा मिलता है। अमरोको प्रबन्ध संघ के पूर्व अध्यक्ष लारेन्स एप्पले (Lawrence Appley) ने भी लिखा है”प्रबन्ध गतिशील संगठनों के निर्देशन के द्वारा सभी सम्बन्धित पक्षकारों के हितों की पूर्ति करते हैं।”

  1. वस्तु तथा सेवाओं की उपलब्धि (Provides goods and services):कुशल प्रबन्ध हो समाज को न्यूनतम लागत पर अच्छी से अच्छी वस्तु तथा सेवाएँ भी यथा-समय एवं पथास्थान उपलब्ध कर सकता है। आज जो वस्तुएँ तथा सेवाएँ हम उपयोग में लाते हैं वे सब कुशल प्रबन्ध के अभाव में केवल एक स्वप्न हो होती हैं।
  1. रोजगार की उपलब्धि (Provides cmployment):कुशल प्रबन्ध समाज के लोगों के लिए निरन्तर रोजगार के अवसर उपलब्ध करने में सक्षम होते हैं। कुशल प्रबन्ध व्यवसाय का सुव्यवस्थित विकास एवं विस्तार करता है। यह नवप्रवर्तन भी करता है जिससे समाज के लोगों के लिए रोजगार के अवसर स्वतः उपलब्ध होते हैं।

III. राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में महत्त्व :

 दुनिया को सभी अर्थव्यवस्थाओं में प्रबन्ध का महत्त्व निर्विवाद है। पूँजीवादी, साम्यवादी, समाजवादीसभी अर्थव्यवस्थाओं में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसी प्रकार अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों तथा निजी,सार्वजनिक, संयुक्त क्षेत्र में भी इसका महत्व समान है।

विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों में भी प्रबन्ध के महत्व को समान रूप से स्वीकार किया जाता है। विश्वविख्यात प्रवन्ध विशेषज्ञ पीटर इकर ने लिखा भी है कि “द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जहाँ भी हुत गति से आर्थिक एवं सामाजिक विकास हुआ है यह प्रबन्ध एवं प्रबन्धकों के द्वारा विकास के लिए किये गये सुव्यवस्थित एवं उद्देश्यपूर्ण कार्यों के परिणामस्वरूप ही हुआ है।” कुशल प्रबन्ध का राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में योगदान का हम निम्न कुछ शीर्षकों के अन्तर्गत अध्ययन कर सकते हैं:

  1. भौतिक संसाधनों का सदुपयोग (Proper utilisation of physical resources)-प्रत्येक राष्ट्र के पास अपने अनेक भौतिक संसाधन होते हैं, जैसे भूमि, वन, समुद्र, नदियाँ, खनिज पदार्थ, पशु सम्पदा आदि प्रभावकारी प्रबन्ध इन संसाधनों का देश के हित में उपयोग कर सकता है।

भारत में भी ऐसे विविध भौतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। कुशल प्रबन्धकीय सेवाएँ इन संसाधनों का देश के हित में उपयोग कर सकती है और देश को प्रगति की ओर ले जा सकती हैं।

हिन्दुस्तान लीवर लि. के पूर्व अध्यक्ष पी. एल. टण्डन (P. L. Tandon) ने लिखा भी है कि”हम देख चुके हैं कि केवल श्रम, पूँजी तथा कच्चे माल से स्वतः आर्थिक विकास नहीं हो जाताहै, इसके लिए प्रबन्धकीय ज्ञान की आवश्यकता होती है जहाँ जहाँ साधनों का अच्छाप्रबन्ध हुआ है वहाँ परिणाम भी अच्छे निकले हैं “

  1. मानव संसाधनों का सदुपयोग (Proper utilisation of human resources):सभी प्रबन्ध विशेषज्ञों का यह दृढ़ विश्वास है कि मानव एक विशिष्ट प्रकार का संसाधन है देश के विकास में अतिविशिष्ट भूमिका निभाता है। कारगर प्रबन्ध इस संसाधन का कारगर ढंग से उपयोग करके राष्ट्रीय विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। पीटर ड्रकर इस प्रकार की भूमिका से बहुत आश्वस्त हैं। ये लिखते हैं कि “विकास आर्थिक सम्पदा से अधिक मानव शक्तियों पर निर्भर करता है और मानव शक्तियों का सृजन करना प्रबन्ध का कार्य है। प्रबन्ध इसे गति प्रदान करता है जिसके परिणामस्वरूप विकास होता है।”
  1. पूंजी निर्माण को प्रोत्साहन (Encourages capital formation):सभी देशों में पूंजी निर्माण होता है, किसी में कम तो किसी में ज्यादा विकासशील राष्ट्रों में पूँजी निर्माण की दर कम होती है। इसका कारण यह है कि वहाँ के लोगों की आय कम होने से बचत भी कम होती है। दूसरी ओर बचत के विनियोग के रास्ते भी सीमित हो होते हैं। कुशल प्रबन्ध विनियोग के अवसर उपलब्ध कराता है। वह इसी बचत को बैंकों व व्यवसाय के माध्यम से विनियोजित कर अधिक रोजगार उपलब्ध करता है। इससे आय बचत एवं विनियोग का क्रम बना रहता है। इस प्रकार कुशल प्रबन्ध पूँजी निर्माण को प्रोत्साहित कर अर्थव्यवस्था के निरन्तर विकास में सक्रिय रूप से योगदान देता है।
  1. राष्ट्रीय योजनाओं में योगदान (Contributes to national planning):कुशल प्रबन्ध राष्ट्रीय योजनाओं के लक्ष्यों की प्राप्ति में भी महत्त्वपूर्ण रूप से योगदान देता है। यह योजनाओं की प्राथमिकताओं के अनुरूप उद्योगों का विकास एवं विस्तार करता है। यह सामाजिक योजनाओं तथा शिक्षा, रोजगार, जनसंख्या नियन्त्रण, स्वास्थ्य आदि में योगदान देता है। कुशल प्रबन्ध इन आर्थिक सामाजिक योजनाओं में सहयोग देकर राष्ट्रीय योजनाओं के लक्ष्यों की प्राप्ति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

प्रबंध के स्तर

 किसी संगठन के अधिकार शृंखला में तीन स्तर होते हैं-

(क) उच्च स्तरीय प्रबंध– सामान्यत उच्च या शीर्ष पदों पर क्रियाशील प्रबन्धकों का समूह उच्च स्तरीय या उच्च प्रद कहलाता है। अन्य शब्दों में प्रबन्ध की कार्यात्मक विचारधारा क अनुसार संगठन में नियोजन एवं नीति-निर्धारण प्रबन्ध को उच्च स्तरीय प्रबन्ध कहा जाता है। लुईस ए ऐलन के अनुसार उच्च प्रबन्ध, नीति-निर्धारक समूह है जो कम्पनी की समस्त क्रियाओं के निर्देशन एवं सफलता के लिए उत्तरदायी है।”

उच्च स्तरीय प्रपना का मुख्य कार्य संस्था की नीतियों का निर्धारण करना है ताकि संगठन का कुशल संचालन किया जा सके। लिविंग्स्टन के अनुसार उच्च स्तरीय प्रबन्ध के तीन कार्य है 1. निर्णय कार्य विचारों का उद्गम नियोजन, उद्देश्यों का निर्धारण प्रक्रिया संरचना समन्वय एवं अधिकारियों की नियुक्ति, नीति निर्धारण एवं विश्लेषण क्रियान्वयन अधिकारी का हस्तान्तरण] [वित्तीय साधन का चुनाव उन्हें जुटाना और लान वितरण करना 2. मंशा (Opinion) जानना।

उच्च स्तरीय प्रबन्ध के सहायक कार्य निम्नलिखित

  •  . उपक्रम के उद्देश्य निश्चित करना एवं नीतियों व्याख्या करना।है
  • . आवश्यक आदेश-निर्देश प्रसारित करना।
  • . महत्वपूर्ण मामलों पर विचार-विमर्श करना।
  • . योजनाओं एवं परिणामों की जाँच करना।
  • .. संगठन संरचना के अन्तर्गत अधीनस्थों में स्वैच्छिक
  • आधार पर कार्य करने की भावना को विकसित एवं बनाये रखना।
  •  अधिकारियों में मितव्ययिता तथा कार्यकुशलता का
  • उच्च स्तर बनाये रखना मुख्य कार्यकारी अधिकारियों का चयन करना।
  • उपक्रम की सम्पत्तियों के प्रन्यासी या निक्षेपी के रूप में कार्य करते हुए उनकी सुरक्षा करना।

(ख) मध्य स्तरीय प्रबंध– मध्य-स्तरीय प्रबन्ध का आशय उस स्तर से है जो उच्च एवं निम्न स्तरीय प्रबन्ध के मध्य होता है। अन्य शब्द में विभिन्न विभागों के अध्यक्ष एवं प्रथम व्यक्ति प्रबंधक के मध्य स्तर पर कार्यरत प्रबन्ध मध्य स्तरीय प्रबन्ध कहलाता है। गरी कुशिंग नाइल्स के अनुसार मध्य स्तरीय प्रबन्ध अपने अधीनस्थों के प्रयासों से नीतियों को क्रियान्वित कराते हैं। ये  आदेश-निर्देश एवं परामर्श नीचे की ओर प्रेषित करते हैं एवं सुझाव. निवेदन तथा शिकायत ऊपर की ओर प्रेषित करते हैं।”

इस प्रकार मध्य स्तरीय प्रबन्ध में मण्डल प्रबन्धक संयंत्र प्रबन्धक विभागीय प्रबन्धक उत्पादन विपणन, वितरण एवं कार्मिक प्रबंधक आदि तथा क्षेत्रीय प्रबन्धक होते हैं मध्यस्तरीय करनाप्रबन्ध का मुख्य कार्य क्रियात्मक या परिचालन प्रथना तथा उच्च वर्गीय प्रबनधकों के मध्य समन्वय स्थापित करना होता है। देना।

  1. नीतियों की व्याख्या करना एवं समझाना।
  2. कार्य संचालन हेतु विस्तृत निर्देश देना।
  1. दैनिक कार्यों की प्रगति का मूल्यांकन करना।
  2. क्रियात्मक कार्यों के सम्बन्ध में निर्णय लेने में सहयोग

5 विभागीय कार्यों के समन्वय में सहयोग देना।

  1. परिचालन कर्मचारियों को अभिप्रेरित करना।
  2. पर्यवेक्षीय प्रबन्धकों को आवश्यक प्रशिक्षण देना।
  3. पर्यवेक्षीय कर्मचारियों की समस्याओं को सुलझाना 9. परविक्षीय प्रबन्ध स्तर पर उत्पन्न विवादों को निपटारा 10. शोध एवं अनुसंधान के लिए प्रयत्न करना।

(ग) पर्यवेक्षीय अथवा प्रचालन प्रबंधक– प्रथम पंक्ति पर्यवेक्षीय प्रबन्ध जिसे निम्न स्तरीय प्रचना (Lower Level Mamagranet) भी कहते हैं, का तात्पर्य उन कार्यकारी नेतृत्व (Operating Leadership) प्रदान करने वाले पदों से है जिनका कार्य मुख्यतः कार्यकारी कर्मचारियों के कार्यों का निरीक्षण एवं निर्देश करना होता है आर.सी. डेविस के शब्दों में पर्यवेक्षीय प्रबन्ध से आशय नेतृत्व करने वाले उन प्रबन्धको से है जिनका मुख्य कार्य संचालन कर्मचारियों का व्यक्तिगत निरीक्षण एवं निर्देश करना है इनका कार्य दैनिक कार्यों के निष्पादन से सम्बन्धित एवं तकनीकी प्रकृति का होता है।”

प्रथम-पंक्ति प्रबन्ध अन्य कार्य निम्नलिखित है

  1. संचालकीय योजनाएँ बनाना।
  2. कर्मचारियों के कार्यों का निरीक्षणत्रुटियों में सुधार करना।

3.कर्मचारियों के कार्यों की समीक्षा करना।

  1. कर्मचारियों की कार्यविधियों का ज्ञान करवाना।

5 कार्मचारियों या श्रमिकों को कार्यभार सौंपना|

6.विभिन्न संचालकीय कार्यों में समन्वय स्थापित करना।

  1. उच्च प्रबन्धकोको सामाजिकप्रगति विवरण प्रस्तुतकरना।
  2. अधिकारियों से सम्पर्क रखना एवं आवश्यक सूचना

9 दैनिक कार्य के प्रवाह पर नियंत्रण रखना।

  1. कर्मचारियों के मामलों को उच्चाधिकारियों को भेजना।
  2. कर्मचारियों को अभिप्रेरित करना एवं उनमे अनुशासन बनाये रखना।
  3. कर्मचारियों को आवश्यक शिक्षण प्रशिक्षण प्रदान
  4. कर्मचारियों से व्यक्तिगत सम्बन्ध बनाये रखना।
  5. कर्मचारियों को परामर्श, मार्गदर्शन देना एवं उनकीकार्य समस्याओं को हल करना|
  6. कर्मचारियों के कार्यों का मूल्यांकन करना।

प्रबंध के प्रमुख कार्य

1. नियोजन:

किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किये जानेवाले अपेक्षित कार्यों की रूपरेखा या चित्रण ही नियोजन है। उदाहरण के लिए, किसी कार्य हेतु किसी गंतव्य स्थान पर पहुंचना है तो हम निम्न बातों पर विचार करते है कब पहुंचना है, कितनी दूरी है, कौनसा रास्ता व कौनसा साधन उपयुक्त रहेगा, साथ में क्या-क्या ले जाना है, कितना खर्च कर सकते है इत्यादि इन सभी प्रश्नों के उपयुक्त उत्तर (उपलब्ध विकल्पों में से एक का चयन करना) प्राप्त कर गंतव्य तक सही समय पर पहुँचने की रूपरेखा तैयार करते है। यही नियोजन है। प्रबन्धक भी संगठन के लक्ष्य प्राप्त करने हेतु ऐसे ही प्रश्नों पर विचार कर कार्य करने से पूर्व कार्य की रूपरेखा या कार्य योजना बनाता है जिससे निर्धारित लक्ष्य सुगमता से प्राप्त हो सके। प्रवन्धक इस कार्य योजना (Action plan) के साथ इस हेतु आवश्यक साधनों विधियों, कार्य-पद्धतियों, नियमों कार्य प्रणालियों समय व बजट (पूजा) का भी अग्रिम निर्धारण करता है।

नाइल्स के शब्दों में नियोजन किसी उद्देश्य को पूरा करने हेतु सर्वोत्तम कार्यपथ पर चुनाव करने एवं विकास करने की जग प्रक्रिया है।” नियोजन मूलतः प्रत्येक कार्य को करने के लिए उपलब्ध विविध विकल्पों में से श्रेष्ठ या उचित का चयन करना एवं जागरूक रहते हुए बदलती परिस्थितियों के साथ विकल्प का बदलना है। इसीलिए गोइज (Gotya) के अनुसार नियोजन एक चयन प्रक्रिया है तथा नियोजन की समस्या का जन्म कार्य के वैकल्पिक तरीकों की खोज के साथ होता है।

नियोजन कार्य के प्रमुख घटक या तत्व है-उद्देश्य नीतियों, कार्य विधियों, प्राविधियों, रीतियों, नियम, कार्यक्रम व्यूहरचना प्रमाण या मापदण्ड समय बजट आदि भविष्य की समयावधि को ध्यान में रखते हुए योजनाएँ दीर्घकालीन या अल्पकालीन हो सकती

2.संगठन :

यह प्रबन्ध प्रक्रिया का महत्वपूर्ण कार्य है। उद्देश्य प्राप्ति हेतु जो आवश्यक कार्य या किया सम्पन्न करनी है. उसका करना उन कार्यों का विभाजन व वर्गीकरण करना उस कार्य को करने योग्य व्यक्तियों की योग्यता का निर्धारण करना, अधिकार व दायित्व तय करना, सभी कार्य करने वाले व्यक्तियों कर्मचारियों के आपसी संबंध निर्धारित करना, समान कार्यों का विभागीकरण करना इत्यादि महत्वपूर्ण रचना (संगठन संरचना प्रबन्धक को करनी पढ़ती है। इससे ही विभाग-विभागाधिकारी अधिकारी अधीनस्थ सम्बन्ध सम्प्रेषण प्रारूप नियन्त्रण की विधि निर्धारित होती है। संस्था की सफलता एवं स्थायित्व उसके संगठन रचना व संगठन कार्य पर निर्भर करती है। इसलिए प्रबन्ध चिन्तकों ने इसे मानव शरीर में स्थित भेरुदण्डके समक्ष बताया है।

 3. निर्देशन किसी कार्य को करने के लिए।:

उपलब्ध संसाधनों का प्रयोग किस प्रकार किया जायें अधिकतम सफलता या लक्ष्य प्राप्त हो सके यही निर्देशन है। समान संसाधनों के होते हुए भी प्रत्येक निर्देशक (प्रबन के प्राप्त परिणाम भिन्न होते है। इसका अच्छा उदाहरण भारतीय फिल्म उद्योग में मिलता है। 1917 में शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा लिखे गए एक रोमांटिक उपन्यास ‘देवदास पर 1927 से लेकर 2013 तक 14 फिल्म निर्देशको द्वारा 16 फिल्म हिन्दी व क्षेत्रीय भाषाओं में बनाई गई किन्तु सबका परिणाम (कमाई) भिन्न भिन्न रहा। यह एक ही उपन्यास पर आधारित इतनी फिल्में बनने का उदाहरण है। हिन्दी में चार बार 1835 1955 2002 में 2009 में बनी इन फिल्मों का फिल्माकन एवं प्रस्तुति पर अमेरिका के प्रमुख शोध विश्वविद्यालय यूनिवर्सिटि ऑफ आयोग (www.ulowa.edu) ने निर्देशन का तुलनात्मक अध्ययन किया है। फिल्म निर्देशक नायक नायिका खलनायक व सभी पात्रों को अभिनय नृत्य व बातचीत करने के तरिके का निर्देश देता है। संगीतकार कैमरामैन ड्रेस डिजानवर एवं फिल्म के निर्माण में लगे सभी व्यक्तियों को आदेश-निर्देश देता है. अभिप्रेरित करता है, पर्यवेक्षण व जाँच करता है अंततः संयोजन कर फिल्म प्रदर्शन के लिए तैयार करता है। सम्भवतः आप निर्देशन कार्य की व्यापकता प्रासंगिकता एवं जटिलता को समझ पाये होंगे।

4. नियन्त्रण:

इससे प्रबन्धकीय कार्यों का कुशलता से निष्पादन सम्भव होता है। कार्य के प्रमाण नियोजन के समय ही लक्ष्य निर्धारण के साथ निर्धारित कर दिए जाते हैं। “कर्मचारी द्वारा सम्पन्न किए गए कार्य के वास्तविक परिणामों को इन पूर्व निर्धारित मानकों से तुलना कर विचलन अधिक या कम (+/-) ज्ञात करते हैं वो का प्रयोगात्मक है। प्रयास करने के लिए या आगामी योजना में विस्तार के लिए करतेहै।

5.समन्वय:

संगठनमें कर्मचारियों की क्रियाओं कार्यविधियों कार्य क्षमताओं व गुणों में पर्याप्त भिन्नता तथा पायी जाती है, जिससे व्यक्तिगत अन्तक्ति संघर्ष की सम्भावना रहती है। किन्तु प्रबन्धक को इनके प्रयासों में एकरूपता व सामंजस्य उत्पन्न करना होता है, ताकि न्यूनतम लागत पर निश्चित लक्ष्य प्राप्त किया जा सके भौतिक साधनों की सीमितता तथा अधिकतम प्रयोग की बाध्यता के कारण इनके आवंटन में भी सामंजस्थ उत्पन्न करना पड़ता है ताकि प्रति ईकाई उपरिव्यय लागत न्युनतम हो सके। मैसी के अनुसार समन्वय अन्य प्रबन्धकीय कार्यों के उचित क्रियान्वयन का परिणाम है। इसीलिए कून्टज ओ खोनेल ने तो कहा कि समय प्रबन्ध का सार

प्रबन्ध उद्देश्य

प्रबन्ध एक किया है और प्रत्येक किया का अपना उद्देश्यहोता है। इस प्रकार प्रबना के भी कुछ उद्देश्य है। चूंकि प्रबन्धविस्तृत कियाओं का समूह है, अत: इसके उद्देश्य भी विस्तृत हैजिन्हें मुख्य रूप से चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है

  1. प्राथमिक उद्देश्य
  1. सहायक उद्देश्य
  1. व्यक्तिगत उद्देश्य एवं सामाजिक उद्देश्य

4.सामाजिक उद्देश्य

  1. प्राथमिक उद्देश्य:प्रबंध का प्राथमिक उद्देश्य किसी उपक्रम से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों की आकांक्षाओं संतुष्टि प्रदान करना है जिससे उपक्रम अपने उन उद्देश्यों की प्राप्ति कर सके जिसके लिए इसे स्थापित किया गया है। अतः प्रबनध के प्राथमिक उद्देश्य (i) उचित लागत पर उत्पादों एवं सेवाओं का उत्पादन

करना है।

() उन उत्पादों एवं सेवाओं का उचित मूल्य पर वितरण

करना है जिससे उपभोक्ताओं को सम्पूर्ण संतुष्टि प्राप्त

(iii) उपक्रम में उन सभी संसाधनों को उचित पारिश्रमिक

देना है, और

(iv) उपक्रम को उचित मात्रा में लाभार्जन करना है।

  1. सहायक उद्देश्य:सहायक उद्देश्य प्राथमिक उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक होते हैं। सहायक उद्देश्य किसी उपक्रम की आंतरिक कार्यप्रणाली से सम्बन्धित होते है जिससे कार्य निष्पादन में यथेष्ट कुशलता प्राप्त की जा सके। इसके अंतर्गत उपक्रम के विभिन्न संसाधनों का इस तरह प्रयोग करना होता है जिससे इन संसाधनों का योगदान अधिकतम हो सके ये मानवीय वित्तीय एवं भौतिक रूप में होते हैं। विभिन्न संसाधनों की कार्यकुशलता और योगदान इस बात पर निर्भर करती है कि उनकी गुणवत्ता कैसी है, उनका कैसे उपयोग किया जाता है और उनके उपयोग में किस तरह सामंजस्य स्थापित किया जाता है। अतः प्रबना सहायक उद्देश्य:

(1) विभिन्न संसाधनों में गुणवत्ता उत्पन्न करना

(ii) इनका यथोचित समय एवं स्थान पर उपयोग करना (in) इनके उपयोग में सामंजस्य स्थापित करना ताकि सभी संसाधन एक दूसरे के पूरक रूप में कार्य करें और कार्यक्षमता प्रभावशाली हो।

  1. व्यक्तिगत उद्देश्य : किसी उपक्रम में व्यक्तिगत उद्देश्य मानवीय संसाधनों की दृष्टि से है। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि किसी संस्था में विभिन्न संसाधनों को मानवीय एवं अन्य संसाधनों में विभाजित किया जाता है। मानवीय संसाधनों अन्य संसाधनों से भिन्न है क्योंकि उन्हीं के द्वारा गैर-मानवीय संसाधनों का संचालन होता है किसी उपक्रम में मानवीय संसाधना को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है उद्यमी प्रबंधक एवं अन्य कर्मचारी इन सभी वर्गों के अलग-अलग कार्य उत्तरदायित्यय आकांक्षाएँ होती है। प्रबंध का उद्देश्य इन सभी वर्गों की आकांक्षाओं को पूरा करना है। इसके लिए आवश्यक है कि उपक्रम में ऐसा वातावरण एवं कार्यप्रणाली विकसित की जाय जिससे सभी व्यक्तियों को संतुष्टि प्राप्त हो और वे अपनी सम्पूर्ण क्षमता से कार्य कर सकें।
  1. सामाजिक उद्देश्य:उपक्रम अपने संसाधन समाज से प्राप्त करता है उनमें से कुछ को उत्पादों एवं सेवाओं में परिवर्तित करता है, और पुनः समाज को देता है। इस प्रक्रिया के प्रत्येक चरण में सामाजिक उद्देश्य निहित होता है इन उद्देश्यों में समाज के विभिन्न संसाधनों का विकास एवं उनका समूचित उपयोग, समाज के प्रत्येक घटक की इच्छापूर्ति समुचित आचरण में संलग्नता अच्छे उदाहरण का प्रस्तुतीरकण आदि सम्मिलित है।

प्रबन्ध : कला अथवा विज्ञान

(Management: An Art or a Science)

प्रबन्ध कला है या विज्ञान, प्रायः एक विवादास्पद प्रश्न रहा है। इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें प्रबन्ध के वर्तमान स्वरूप एवं परिस्थितियों को ध्यान में रखना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त इस प्रश्न का समुचित उत्तर ढूँढ़ने के लिए हमें इस प्रश्न के निम्न पहलुओं का विश्लेषण भी करना पड़ेगा :

  1. क्या प्रबन्ध एक कला है? I
  2. क्या प्रबन्ध एक विज्ञान है?

III. क्या प्रबन्ध कला एवं विज्ञान का संगम है?

क्या प्रबन्ध एक कला है? (Is Management an Art ?) :

अध्ययन व अनुभव से प्राप्त ज्ञान या चातुर्य के उपयोग से कार्यों को करना ही कला है। कारलिसले (Carlisle) ने लिखा है कि “इच्छित परिणाम की प्राप्ति के लिए चातुर्य या ज्ञान का व्यवस्थित रूप से उपयोग करना ही कला है।”

टैरी (Terry) के अनुसार, ‘‘चातुर्य के प्रयोग से इच्छित परिणाम प्राप्त करना कला है।” बर्नार्ड (Bernard) ने इसे ‘व्यावहारिक ज्ञान’ (Behavioural Knowledge) के रूप में परिभाषित किया है।

संक्षेप में, ज्ञान, अध्ययन, अनुभव, चातुर्य तथा सिद्धान्तों आदि के व्यावहारिक उपयोग से इच्छित परिणामों को प्राप्त करना ही कला है।

कला को कुछेक प्रमुख विशेषताएँ निम्नानुसार हैं।

  1. अध्ययन, अनुभव, चातुर्य सिद्धान्तों के उपयोग से इच्छित परिणाम (Desired results) प्राप्त करना कला है।
  2. कला व्यावहारिक ज्ञान है अर्थात् यह ज्ञान का व्यावहारिक पक्ष है।
  1. अभ्यास (Practice) से ही कला में दक्षता प्राप्त की जा सकती है।
  2. कला का प्रत्यारोपण या हस्तांकन (Transplantation) नहीं किया जा सकता है, बल्कि यह सिखायी जाती है।
  1. कला सृजनात्मक (Creative) होती है जो प्रत्येक व्यक्ति की बौद्धिक योग्यता, दूरदर्शिता तथा आत्मज्ञान से प्रभावित होती है।
  1. कला मानवीय गुण है। यन्त्रों अथवा पशुओं में यह गुण नहीं होता है।
  2. यह कार्य के निष्पादन (To do or How to do) से सम्बन्धित है।
  1. कला संचित नहीं की जा सकती है।
  2. कला के शत प्रतिशत सत्य सिद्धान्त नहीं होते हैं।
  1. कला एक अवधारणा से विकसित होती है।

प्रबन्ध विज्ञान की प्रकृति

विज्ञान भी दो प्रकार को होता है। प्रथम, शुद्ध विज्ञान (Pure science) तथा द्वितीय, व्यावहारिक विज्ञान (Applied science) । शुद्ध विज्ञान में हम भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान आदि को सम्मिलित करते हैं, जबकि व्यावहारिक विज्ञान में हम चिकित्सा विज्ञान, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, मानवशास्त्र, समाजशास्त्र आदि को सम्मिलित करते हैं। शुद्ध विज्ञान के सिद्धान्त व्यवहार में शत प्रतिशत खरे उतरते हैं। उनके कारण एवं परिणाम में शत प्रतिशत सम्बन्ध पाया जाता है, किन्तु व्यावहारिक विज्ञान के सिद्धान्त गतिशील वातावरण से सम्बन्ध रखते हैं। अतः ऐसे विज्ञान के सिद्धान्त कार्यों में मार्गदर्शन का ही कार्य करते हैं। इन सिद्धान्तों के अपनाने की दशा में कारण एवं परिणामों में शत प्रतिशत सम्बन्ध स्थापित करना कठिन होता है।

विज्ञान की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं :

(1) विज्ञान किसी भी विषय का उद्देश्यपरक अध्ययन (Objective study) है।

 (ii) विज्ञान किसी विषय का क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित अध्ययन है।

(iii) इस अध्ययन के द्वारा ज्ञान का वर्गीकरण किया जाता है।

(iv) विज्ञान के सिद्धान्त तथ्यों, अवलोकनों परीक्षणों तथा अनुसंधानों पर आधारित होते हैं।

(v) विज्ञान के सिद्धान्त सार्वभौमिक होते हैं।

(vi) विज्ञान के ज्ञान को अर्जित एवं हस्तान्तरित किया जा सकता है।

(vii) विज्ञान के द्वारा प्रत्येक कार्य में कारण एवं परिणाम का सम्बन्ध किया जा सकता है।

 (viii) विज्ञान के द्वारा भावी परिणामों का अनुमान लगाया जाता है।

निष्कर्ष :प्रबन्ध कला एवं विज्ञान का सम्मिश्रण (Management Amalgam of Art and Science):

उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रबन्ध कला भी है और व्यावहारिक विज्ञान भी। वैसे भी व्यवहार में कला एवं विज्ञान को अलग-अलग किया भी नहीं जा सकता है। कला एवं विज्ञान की जोड़ी सदैव से बनी रही है। कारलिसले (Carlisle) ने लिखा है कि विज्ञान एवं कला साथ-साथ चलते हैं। (Science and Art go hand-in-hand.)

कुंज ने ठीक हो लिखा है कि प्रबन्ध करना एक कला है, जबकि प्रबन्धशास्त्र ज्ञान की एक शाखा है जो प्रबन्ध की कला के लिए आवश्यक है। दूसरे शब्दों में, कला की सफलता के लिए जान परमावश्यक है। ये दोनों एक ही गाड़ी के दो पहिए या एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कला एवं विज्ञान एक-दूसरे के पूरक हैं।

प्रबन्ध के सिद्धान्त अवश्य हैं किन्तु इनका उपयोग अनेक अनिश्चितताओं के बीच किया जाता है। अतः प्रबन्धक को अपने ज्ञान के साथ-साथ चातुर्य का भी उपयोग करना ही पड़ेगा। प्रबन्धक को एक कलाकार के रूप में अपनी अन्तर्रात्मा की बात को अनुभव एवं ज्ञान के तराजू में तोलकर निर्णय लेना पड़ता है, किन्तु एक वैज्ञानिक के रूप में उसे प्रबन्ध के सिद्धान्तों के अनुसार निर्णय लेने आवश्यक हैं। अतः कोई भी प्रबन्धक तभी सफल हो सकता है जबकि वह प्राप्त सैद्धान्तिक ज्ञान को अपनी कला से व्यवहार प्रभावों को में अपनाना सीख ले।

विज्ञान के बिना कला की सफलता सम्भव नहीं है, जबकि कला के बिना विज्ञान का कोई महत्त्व नहीं होगा। कला ही वह साधन है जिससे विज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग सम्भव है। चिकित्साशास्त्र पढ़ने वाला छात्र डॉक्टर बनकर अपने ज्ञान का उपयोग नहीं कर पाता है तो उसका पढ़ना व्यर्थ जाता है। जब वह उस ज्ञान का व्यवहार में उपयोग करता है तो वह वास्तव में विज्ञान को अपनी कला के माध्यम से प्रयोग करता है। ठीक उसी प्रकार प्रबन्धक भी अपने ज्ञान तथा चातुर्य का उपयोग करता है। इस प्रकार प्रबन्धकीय ज्ञान, विज्ञान एवं उसका चातुर्य उसकी कला है। अतः प्रत्येक कार्य में कला एवं विज्ञान का उपयोग करना पड़ता है।

संक्षेप में, हम यही कहेंगे कि प्रबन्ध कला एवं विज्ञान का संगम है। यह क्रमबद्ध ज्ञान से सम्बन्धित व्यावहारिक विज्ञान है जिसका प्रबन्धक अपने कार्यों में अपनी चतुराई से उपयोग करता है। दूसरे शब्दों में, प्रबन्ध सामाजिक एवं व्यावहारिक विज्ञान है जिसके साथ प्रबन्धक अपने चातुर्य का उपयोग करता है तथा द्वान्त श्रेष्ठतम परिणाम प्राप्त करता है।

 

              प्रबंध के सिद्धान्त

 

सिद्धान्त का अर्थ :

किसी विषय के सन्दर्भ में प्रयाप्त प्रमाणों के आधार पर एवं प्रयाप्त तर्क-वितर्क के पश्चात निश्चित किया गया मत या विचार जो समय अनुभव एंव निरिक्षण की कसोटी पर खरा उतरता है “सिद्धान्त” कहलाता है |

 

परिभाषा :

टेरी के अनुसार , “सिद्धान्त को एक आधारभूत विवरण या सत्य के रूप में परिभषित किया जा सकता है जो किसी कार्य या विचार का मार्गदर्शन करता है”|

निष्कर्ष : उपर्युक्त परिभाषाओ के अध्यन से स्पष्ट होता है कि सिद्धान्त एक आधारभूत विवरण या सर्वमान्य सत्य है जो किसी कार्य या विचार या तर्क का आधार होता है |

प्रबंधों के सिद्धांतो की प्रकृति

  1. प्रबंध के सिद्धान्तगतिशीलहोते है।
  2. प्रबंध के सिद्धान्तआधारभूत विवरण या सर्वमान्य सत्यहोते है।
  3. ये सिद्धान्तलोचशीलहोते है।
  4. प्रबंध के सिद्धान्तसापेक्षिकहै।

5.प्रबंध के सिद्धान्त अपूर्ण होते है।

  1. ये सिद्धांतनीतियों से भिन्नहोते हैं।
  2. सिद्धांतनियमो से भिन्नहोते है।
  3. प्रबंध के सिद्धान्तप्रबंध – कौशल से भिन्नहोते हैं।

 

           प्रबंध के महत्वपूर्ण सिद्धान्त

प्रबंध के सिद्धान्त कुछ निम्न प्रकार है :-

  1. विशिस्टिकरण का सिद्धान्त:

यह सिद्धान्त कहता है कि सम्पूर्ण कार्यों को अनेक भागों में विभाजित करना चाहिए तथा कार्य के प्रत्येक भाग को एक विशिष्ट ज्ञान या योग्यता वाले व्यक्ति को सौंपना चाहिए ।

  1. अनुशासन का सिद्धान्त :

प्रबंध के यह सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि संस्था को सफलता के लिए अनुशासन परम आवश्यक है। अत: यह सिद्धान्त कहता है कि सभी कर्मचारियों को अपनी स्वेच्छा से संस्था के नियमो तथा अधिकारी कि आज्ञा को पालन करना चाहिए।

  1. आदेश की एकता का सिद्धान्त :

यह सिद्धान्त बतलाता है कि कोई भी व्यक्ति एक समय में एक से अधिक अधिकारियों से प्राप्त आदेशों की पालना नहीं कर सकता है। अत: यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि एक कर्मचारी को एक समय में केवल एक ही अधिकारी से आदेश प्राप्त होने चाहिए।

  1. निर्देश की एकता या समानता का सिद्धान्त:

यह सिद्धान्त कहता है कि सभी समान प्रकार उदेश्ये वाले कार्यों का एक ही प्रमुख अधिकारी होना चाहिए । फैयोल के अनुसार ” समान उद्देश्य रखने वाली क्रियाओं को एक ही अध्यक्ष द्वारा निर्देशित किया जाना चाहिए।

5.व्यक्तिगत हित के स्थान पर सामान्य हित को वरीयता का सिद्धान्त:

इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक कर्मचारी तथा अधिकारी को अपने व्यक्तिगत हितों की तुलना में सामान्य हितो को अधिक महत्व देना चाहिए और यदि व्यक्तिगत हितों तथा सामान्य हितों में संघर्ष हो तो व्यक्तिगत हितों का त्याग या समर्पण कर देना चाहिए।

  1. कर्मचारी को पारिश्रमिक का सिद्धान्त :

फेयोल का सिद्धान्त यह कहता है कि कर्मचारी को उचित पारिश्रमिक दिया जाना चाहिए । यह पारिश्रमिक केवल कर्मचारियों कि दृष्टि से नहीं बल्कि संस्था कि दृष्टि से भी उचित होना चाहिए।

  1. केंद्रीयकरण का सिद्धान्त:

जब संस्था में निर्णय लेने के सभी अधिकार उच्च प्रबंधकों के हाथो में केंद्रित रहते है तब संस्था में केंद्रीयकरण की स्थति होती हैं, इसके विपरित जब निर्णय लेने के अधिकार अधी नस्थो को सौंप दिए जाते है, तो केंद्रीयकरण की स्थिति कहलाती हैं।

  1. व्यवस्था का सिद्धान्त:

यह सिद्धान्त कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति तथा वस्तु की उपयुक्त व्यवस्था करनी चाहिए । जहा तक व्यक्तियों का प्रश्न है , प्रत्येक व्यक्ति सही स्थान पर लगाया जाना चाहिए ।

  1. न्याय या निष्पक्षता का सिद्धान्त:

प्रबंध का यह सिद्धान्त कहता है कि प्रबंधकों को अपने कर्मचारियों के साथ उचित , निष्पक्ष , समता एवं दयालुता का व्यवहार करना चाहिए।

  1. सोपान श्रखंला या पदानुक्रम का सिद्धान्त :

फेयोल के अनुसार ,,”प्रत्येक संघटन में उच्च प्रबंधक से लेकर निमतम स्तर के प्रबन्धक के बीच अधिकारों की अखंड धारा बहती रहती है । अत: आदेशों के देने तथा प्रतिवेदन प्रस्तुत करने के लिए सामान्यत: इसी धारा या मार्ग का अनुसरण करना चाहिए”।

  1. समता का सिद्धान्त :

समता से तात्पर्य – सभी व्यक्तियों को समान भाव से देखा जाए उनका पारिश्रमिक एवं दंड व्यवस्था में भेद भाव न हो b, किसी जाती , धर्म , भाषा , राष्ट्रीयता व्यक्ति को विशेष महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। सभी के साथ समनता का व्यवहार करना चाहिए।

निष्कर्ष:

       उपर्युक्त प्रबंध के सभी सिद्धांत  अती  महत्वपूर्ण है। ये सभी सार्वभौमिक  सिद्धान्त  है। इन का किसी भी संघटन  तथा  संस्था के प्रबन्ध में  समान्यत:  उपयोग  किया   जा   सकता   है। इनका महत्व सर्वव्यापी है।

प्रबंध के सिद्धांतो का महत्व

प्रबंध के सिद्धान्त प्रबंधकों के लिए अति महत्वूर्ण है । प्रबंध के सिद्धांतो का महत्व निम्नलिखित हैं:-

  1. कार्यकुशलता में वृद्धि:

प्रो. कूंज तथा ओ डोनेल ने लिखा है कि ” प्रबंध के सिद्धांतो से निश्चित ही प्रबंधकीय कार्यकुशलता ने सुधार होता है “। वह अनुभवों तथा अंत ज्ञान के आधार पर निर्णय लेने के स्थान पर सिद्धांतो के आधार पर निर्णय के सकते है । इसके परिणाम स्वरूप , संस्था ने कार्यकुशलता में वृद्धि होती हैं।

  1. प्रबंध के कार्यों को प्रकृति – प्रणाली के विकास में योगदान : 

प्रबंध के सिद्धांतो के विकास से प्रबंध के कार्यों की प्रकृति और अधिक स्पष्ट होने लगती है इससे प्रबंध के विकास में सहायता मिलती है।

3.प्रशिक्षण में सुविधा :

प्रबंध के सिद्धांतो का विकास होने पैर प्रबंध का व्यवस्थित प्रशिक्षण दिया जा सकता हैं। वर्तमान शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रबंधकीय शिक्षण या प्रशिक्षण का जी विकास हुआ है, वह प्रबंध के सिद्धांतो के विकास का ही तो परिणाम है।

  1. प्रबंधकीय शोध में रुचि :

प्रबंधकीय शोध प्रबंध के सिद्धांतो के विकास का कारण एवं परिणाम है। ज्यों- ज्यो शोध होगी , त्यो – त्यो नए सिद्धांतो का विकास एवं परीमार्जरन होगा। ज्यो – ज्यो नए सिद्धांत विकसित होंगे त्यो – त्यो प्रबंध में शोध के नए आयाम विकसित होंगे।

  1. प्रबंध पेशे का विकास: 

                प्रत्येक पेशा निश्चित सिद्धांतो पर टिका होता है। प्रबंध के सिद्धांतो के विकास से प्रबंध को पेशे के रूप में विकसित करने में सहयोग प्राप्त होगा।

FAQS : प्रबंध 

Question :  प्रबंध  के सिद्धान्त सर्वभोमिक होते है , समीक्षा कीजिये ?

Answer   : प्रबंध की सर्वभोमिकता से तात्पर्य प्रबंध के सिद्धांतो एंव कार्यो की व्यापकता से है | प्रबंध के कार्य का सिद्धान्त  विश्व के प्रत्येक  देश , प्रत्येक उद्धोग , प्रत्येक संगठन पर सामान रूप से लागु होते है | फेयोल तथा टेलर दोनों ने ही प्रबंध की इस अवधारणा का समर्थन किया था | यह अवधारणा मानती है की सभी संघटनो , मंदिर , मस्जिद , गुरुद्वारे , चर्च , क्लब , छोटे – बड़े निजी एंव सरकारी तथा सभी प्रबंधको उछ , माध्यम , या फोरमेन द्वारा सामान प्रकार के प्रबंध्किये कार्य किये जाते है | इन प्रबंध  के सिद्धांतो  का सभी कार्यो में उपयोग किया जा सकता है |


”  समन्वय , प्रबंध का सार है ”  स्पष्ट कीजिए  |

 समन्वय का अर्थ एंव परिभाषा :

समन्वय से आशय निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति हेतु की जाने वाली विभिन्न क्रियाओ में एकता अथवा ताल मेल बनाये रखने से है |

हेनरी फेयोल के अनुसार ,: एक संस्था के कार्य संचालन में सुविधा एंव सफलता प्राप्त करने के लिए सभी क्रियाओ में समरूपता लाना ही समन्वय है |”

 समन्वय की विशेषताए :-

1.समन्वय एक सतत प्रक्रिया है |

2.यह मंविये प्रयासों में समरूपता , एक रूपता तथा क्रम बध्यता स्थापित की प्रक्रिया है |
3.यह एक सार्वभोमिक प्रक्रिया है |

4.समन्वय सभी प्रबंधकीय कार्यो का सार है |

5.समन्वय का उदेश्ये संस्था के उद्धेश्ये को प्राप्त करना है |

समन्वय कोई प्रथक कार्य नहीं है बल्कि प्रबंध के सभी स्तरों का भाग है , वस्तुत: समन्वय प्रबंध का सार ही है समन्वय कार्यो का एक सूत्र में पिरोने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है ,यदि समन्वय कार्यो की माला की धागा है तो प्रबंधकीय कार्य उस माला के मोती या फुल है | मोतियों एंव फूलो की माला तभी बनती है जबकि उन्हें एक धागे में पिरोया जाए | इसी प्रकार प्रबंधकीय कार्यो से प्रबंध तभी बनती है जबकि प्रबंधकीय कार्यो के बिच समन्वय की धारा प्रवाहित हो | संषेप में प्रबंध कार्यो में समन्वय एसा बसा होता है तभी प्रबंध सफल होता है |

 

तो दोस्तो उम्मीद करता हूं कि प्रबंध क्या है और उसके बारे में अन्य जानकारी आपको जरूर मिली होगी। और अगर आपको यह आर्टिकल भी पसंद आया होगा। कृपया आप इस आर्टिकल को सोशल मीडिया पर शेयर करे। और हमारे ब्लॉग को सब्सक्राइब कर लेवे जिससे आप सबसे पहले हमारे नए आर्टिकल प्राप्त कर सके.

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