Bank Ki Paribhasha : बैंक का अर्थ, परिभाषा, कार्य, मुख्य विशेषताएं

 

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प्रशन : बैंक से आपका क्या आशय है ? आधुनिक बांको के प्रमूख कार्यो तथा महत्व क उलेख कीजिये |

उत्तर : भूमिका एवं क्रमिक विकास बैंक शब्द आधुनिक युग में लोकप्रिय और बन गया है। बैंक शब्द के आविर्भाव के सम्बन्ध में मतैक्य का अभाव 40 लोग जर्मन शब्द (BANCK) से तथा कुछ लोग इटालियन भाषा के ANCO) शब्द से इसकी उत्पत्ति मानते हैं जिसका अर्थ “Common Fund” से होता प्रिय भाषा में इसे (BANKE) और आंग्ल भाषा में (BANK) कहा जाता है। बैंकों का इतिहास ईसा से लगभग 2 हजार वर्ष पूर्व बेबीलोनिया व यूनान के मन्दिर लेन-देन कार्य की प्रक्रिया से माना जाता है। भारत में वैदिक काल से बैंकों के होने अनुमान लगाया जाता है।

 

आधुनिक बैंकिंग का विकास सर्वप्रथम यूरोप में हुआ जबकि इटली में 1157 में ऑफ वेनिस की स्थापना हुई। इसके बाद अनेक बैंक स्थापित हुए जिनमें 1401 में ऑफ वारसीलोना (Bank of Varcelona ), 1407 में बैंक ऑफ जेनेवा के नाम खनीय है। 1609 में स्थापित बैंक ऑफ एम्स्टड्राम को तो 17वीं शताब्दी में अन्तर्राष्ट्रीय में महान बैंक माना जाता था। इंग्लैंड में आधुनिक बैंकिंग का उदय 1640 से माना सबसे महत्त्वपूर्ण घटना 1694 में बैंक ऑफ इंग्लैंड की स्थापना होना था। इसके अवधि तक तो बैंक विकास धीमा रहा। शनै-शनैः चैक प्रणाली के चालू होने तक के प्रति जनता में विश्वास जमने से उन्होंने वैज्ञानिक रूप धारण कर लिया। 18वीं के अन्त में बैंकिग का कार्य मिश्रित पूंजी वाली कम्पनियों (Joint Stock panics) द्वारा किया जाने लगा, सीमित उत्तरदायित्व को मान्यता मिली तथा उनके या और नियन्त्रण के लिए कानूनी व्यवस्था की जाने लगी। अब बैंक प्रणाली विश्व के देशों में इतनी विकसित हो गई है कि बैंक वर्तमान आर्थिक प्रणाली व व्यापार व्यवस्था भाज्य अंग बन गये हैं।

 

बैंक का अर्थ एवं परिभाषाएं : BANK KI PARIBHASHA 

साधारण बोलचाल में बैंक का अर्थ उस संस्था से लगाया जाता है,जो जनता से धन जमा पर प्राप्त करते हैं तथा ऋण के रूप मे या जमाकर्ताओं के मांगने पर भुगतान करते है। संक्षेप में रुपये का लेन-देन करने वाली संस्था ही बैंक है। आधुनिक युग में बैंकिग के क्षेत्र तथा उनकी कार्य-प्रणाली में इतना परिवर्तन आ गया है कि बैंक की एक सर्वमान्य परिभाषा देना नितान्त कठिन है। फिर भी कुछ अर्थशास्त्रियों की निम्न परिभाषाएं उल्लेखनीय है-

 

 

(A) सर्वमान्य परिभाषाएं

 

(1) किनले बैंक वह संस्था है, जो उधार दिये जाने वाले धन की सुरक्षा का ध्यान रखते व्यक्तियों को उनकी आवश्यकतानुसार ऋण देती है तथा जिसको व्यक्तियों के हुए द्वारा यकता न होने पर द्रव्य सुपुर्द किया जाता है।

 

(2) हार्टबैंक वह संस्था है, जो अपने साधारण व्यवहार में धन प्राप्त करती है तथा जमाकर्ताओं व खातेदारों के बैंकों के भुगतान करती है।

(3) विर्टबैंक पूंजी अथवा अधिक शुद्ध शब्दों में मुद्रा का व्यवसायी है।

 

(4) काउबर- बैंकर का व्यवसाय जनता से कर्ज लेना और बदले में प्रतिभूतियां देना तथा इस प्रकार मुद्रा रचना करना है।

 

(B) कार्यानुसार परिभाषाएँ

 

सर जॉन पीजेंट ने बैंक की परिभाषा उसके कार्यों के अनुसार को है। कुछ यही कह देते हैं कि बैंक यह है, जो बैंक का कार्य करे। वेक्टर कोश के अनुसार, “बैंक वह संस्था जो द्रव्य में व्यवसाय करती है. एक प्रतिष्ठान जहाँ धन का जमा संरक्षण तथा निर्गमन होता है तथा जहाँ ऋण देने एवं कटौती की सुविधायें प्रदान की जाती हैं

 

(C) वैधानिक परिभाषाएँ

 

विभिन्न बैंकिंग अधिनियमों में बैंक की परिभाषा उचित नहीं लगती। भारतीय बेकिंग (नियमन) अधिनियम, 1949 के अनुसार, “बैंकिंग कम्पनी वह कम्पनी है जो बैंकिंग का व्यवसाय करे।” बैंकिंग शब्द की परिभाषा देते हुए यह बताया गया है— बैंकिंग से तात्पर्य ऋण देने अथवा विनियोजन के लिए जनता से धन जमा करना है जिसे मांग करने पर लौटाना तथा बैक, ड्राफ्ट अन्य प्रकार की आज्ञा द्वारा निकाला जा सकेगा। इसी प्रकार भारतीय विनिमय साध्य विलेख अधिनियम के अनुसार- “बैंकिंग के अन्तर्गत बैंकिंग का कार्य करने वाला प्रत्येक व्यक्ति तथा डाकघर बचत बैंक शामिल है।”

उचित परिभाषा कार्यानुसार वेबस्टर (Webster) शब्द-कोश में दी गई परिभाषा जो ऊपर बताई जा चुकी है, सर्वोत्तम कही जा सकती है और बहुत ही सरल परिभाषा “बैंक ऐसी संस्था है जो अपने ग्राहकों के लिए धन सम्बन्धी लेन-देन के सब कार्य करती है।”

 

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर एक बैंक की निम्नांकित विशेषतायें होती हैं, जिस पर पेजेण्ट महोदय ने विशेष बल दिया है-

 

(i) बैंकिंग कार्य प्रमुख व्यवसाय होता है, भारतीय साहूकार जो सहायक धन्धे के साथ में बैंकिंग कार्य करते हैं, बैंक नहीं माने जाते।

 

(II) बैंक के रूप में प्रसिद्धि या प्रतिष्ठा होती है। समाज में बैंकर के रूप में प्रतिष्ठा होनी चाहिए अन्य रूप में नहीं।

 

 

 

 

भारतीय बैंक के प्रकार / आधुनिक बैंकों के प्रकार/स्वरूप

 

(Types of Modern Banks) आर्थिक जगत में परिवर्तनों के साथ-साथ बैंकिंग संस्थानों के कार्यों में भी विशिष्टता

 

का मार्ग प्रशस्त हुआ है और इन कार्यों में भी भिन्नता के कारण अनेक प्रकार के बैंकों की स्थापना हुई है। प्रत्येक वर्ग के बैंक विशेष प्रकार के व्यवसाय व कार्य के लिए ऋण देते हैं तथा आर्थिक साधन जुटाने की रीतियों में भी ऋण देने की अवधि की भिन्नता के कारण अन्तर पाया जाता है। इस प्रकार आधुनिक बैंकों के मुख्य स्वरूप निम्न हैं-

 

(1) व्यापारिक बैंक (Commercial Banks) – व्यापारिक बैंक सामान्य बैंकिंग कार्य करते हैं और व्यापारियों, उद्योगपतियों तथा व्यवसायियों को अल्पकालीन ऋण उपलब्ध करते हैं। इनके द्वारा दिये जाने वाले ऋणों की अवधि सामान्यतः तीन महीनों की होती है। भारत में व्यापारिक बैंक संयुक्त पूँजी वाली कम्पनी (Joint Stock Companies) के रूप में कार्य करते हैं। स्टेट बैंक, यूको बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, पंजाब नेशनल बैंक, सेन्ट्रल बैंक, इण्डिया बैंक, देना बैंक आदि व्यापारिक बैंक ही है। व्यापारिक बैंक जमा प्राप्त करते हैं, शहकों के चैकों का भुगतान करते हैं तथा उनके एजेन्सी सम्बन्धी कार्य करते हैं, अल्पकालीन जण देते हैं। इनके कार्यों का विस्तृत ब्यौरा आगे दिया गया है। देश में 30 जून, 2011 को कुल 164 अनुसूचित व्यापारिक बैंक थे, जिनकी लगभग 90,775 शाखाएँ थी। इसके अलावा 5 गैर अनुसूचित बैंक थे और उनकी 55 शाखाएँ थी। इस प्रकार 169 व्यापारिक बैंकों की कुल शाखाएँ 90,830 थी।

 

(2) औद्योगिक बैंक (Industrial Banks)- औद्योगिक संस्थानों को निर्माण कार्यों तथा विस्तार कार्यों आदि के लिए बड़ी मात्रा में दीर्घकालीन ऋणों की आवश्यकता पड़ती है। व्यापारिक बैंक केवल अल्पकालीन ऋणों की ही व्यवस्था करते हैं। अतः दीर्घकालीन एवं बड़े ऋणों की पूर्ति औद्योगिक बैंक ही करते हैं। इनकी पूंजी अपेक्षाकृत अधिक होती है। संयुक्त पूंजी वाली कम्पनी के रूप में पूंजी प्राप्त करने के लिए हिस्से भी विनियोग संस्थाओं को ही बेचे जाते हैं। ऐसे बैंक अपनी उधार देने योग्य पूंजी में वृद्धि के लिए दीर्घकालीन ऋण-पत्र भी बेचते हैं। केन्द्रीय बैंक तथा सरकार के अलावा विदेशी ऋण संस्थान भी इस प्रकार के बैंकों आर्थिक साधन उपलब्ध करते हैं। ये बैंक न केवल देशी मुद्रा में दीर्घकालीन औद्योगिक ऋण प्रदान करते हैं बल्कि विदेशी मुद्रा में भी ऋण देते हैं। भारत में भारतीय औद्योगिक विन निगम (IFCL), भारतीय औद्योगिक विकास बैंक (Industrial Development Bank of India), भारतीय औद्योगिक विकास साख एवं विनियोग निगम (ICICI), 18 राज्य वित्त निगम (S.F.C.) (लघु-उद्योगों के लिए) कतिपय उदाहरण है। भारतीय औद्योगिक विकास बैंक (IDBI) तथा ICICI व्यापारिक बैंक बन गये हैं। इन बैंकों का कार्य ऋण देने के अतिरिक्त औद्योगिक संस्थानों की हिस्सा पूंजी के तथा ऋण-पत्रों के अभिगोपन (Under-writing) का कार्य करना भी था।

 

(3) कृषि बैंक (Agriculture Bank) – विश्व में जापान, अमेरिका तथा रूस आदि विकसित देशों में कृषि विकास की वित्त व्यवस्था के लिए विशिष्ट प्रकार के बैंक कार्यशील हैं। कृषि में अल्पकालीन, मध्यकालीन तथा दीर्घकालीन ऋणों की पूर्ति कृषि सहकारी बैंक (Agricultural Co-operative Banks) करते हैं तथा दीर्घ ऋणों की पूर्ति भूमि विकास बैंकों (Land Development Banks) द्वारा की जाय। भारत में अब व्यापारिक बैंकों के माध्यम से अल्पकालीन व मध्यकालीन ऋणों की पूर्ण बढ़ावा दिया जा रहा है। सहकारी बैंकों में कृषि केन्द्रीय सहकारी बँक, राज्य सहकारी बैं आदि हैं। एक शीर्ष बैंक के रूप में एक राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (Nation)) Bank of Agricultural & Rural Development) अथवा (NABARD) स्थापना की गई है जो कृषि लघु उद्योगों एवं ग्रामीण विकास के लिए दीर्घकालीन मध्यकालीन ऋणों की व्यवस्था करता है।

 

(4) विदेशी विनिमय बैंक (Foreign Exchange Banks) – विदेशी विनिमय बैंक उन बैंकों को कहा जाता है जो विदेशी मुद्रा का लेन-देन करते हैं। सभी देशों में भार व्यापारिक बैंक विदेशी मुद्रा का लेन-देन, बिलों का क्रय-विक्रय तथा विदेशी व्यापार को सप्त एवं सुविधाजनक बनाने के लिए विदेशी विनिमय की वित्त व्यवस्था करते हैं। भारत में पहले केवल विदेशी बैंकों की शाखायें ही इस कार्य को करती थीं। अब भारत में भी बहुत-से बो व्यापारिक बैंक विदेशी विनिमय बैंक के कार्य करने लगे हैं। इन बैंकों में विदेशी मुद्रा को है व्यवस्था के लिए अपेक्षाकृत अधिक वित्तीय साधनों की जरूरत पड़ती है। भारत में पूर्णतया भारतीय विदेशी विनिमय बैंक कोई भी नहीं है। अधिकांश विनिमय बैंक विदेशी विनिमय बैंकों की शाखायें हैं। 30 जून, 2011 को भारत में स्थित ऐसे 27 बैंक थे और उनकी 318 शाखायें थी जो भारत के निर्यात व्यापार का लगभग 70% तथा आयात व्यापार के 90% भाग का वित्त प्रबन्ध करती हैं भारतीय बैंकों का निर्यात व्यापार में न्यूनतम भाग है ।

 

(5) बचत बैंक (Saving Banks) – पाश्चात्य राष्ट्रों इंगलैंड, अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि राष्ट्रों ने छोटी-छोटी बचतों को प्रोत्साहन देने के लिए बचत बैंक स्थापित किये हैं जिनमें थोड़ी धनराशि जमा की जाती है पर विशेष शर्तों के अनुसार ही निकाली जा सकती है। भारत में भी अल्प बचतों को प्रोत्साहन देने तथा ग्रामीण क्षेत्रों में भी साधारण बैंकिंग सुविधा की दृष्टि से पोस्ट ऑफिस बचत खाते (Post Office Saving Bank Accounts) की व्यवस्था उसी का रूप है। भारत में व्यापारिक बैंक ही बचत बैंक का भी कार्य करते हैं।

 

(6) स्वदेशी बैंकर्स (Indigenous Bankers) – भारत के सन्दर्भ में इस प्रकार के बैंकों में महाजनों, सर्राफों और साहूकारों का समावेश होता है। भारत की ग्रामीण एवं कृषि वित्त व्यवस्था में तो इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है ही, शहरी एवं अन्य व्यवसायों में वित्त व्यवस्था में भी काफी योगदान रहा है। इनकी शोषण प्रवृत्ति के कारण केन्द्रीय बैंक के कठोर नियन्त्रण एवं नियमन से इन बैंकों की गतिविधियाँ कम पड़ी हैं।

 

(7) निजी क्षेत्र बैंक (Private Sector Banks) – भारत में निजी क्षेत्र के बैंकों की संख्या 30 जून, 2011 को 21 थी जिसमें निजी क्षेत्र के अनुसूचित पुराने बैंक 15 तथा उनकी शाखाएँ 4843 तथा निजी क्षेत्र के अनुसूचित नये बैंक 6 और उनकी शाखाएँ 6999 थी इस प्रकार भारत में अनुसूचित निजी क्षेत्र बैंकों की संख्या 21 तथा उनकी शाखाएँ 11,842 हैं। इसके अन्तर्गत एच. डी. एफ. सी. बैंक, लक्ष्मी विलास बैंक, ICICI धन लक्ष्मी बैंक, अक्सिस बैंक, यश बैंक आदि का समावेश है।

 

(8) केन्द्रीय बैंक (Central Bank) – आज विश्व के सभी राष्ट्रों में नियन्त्रित अपरिवर्तनशील पत्र मुद्रा का निर्गमन करने, बैंकों के बैंक के रूप में भूमिका निभाने तथा लख की मात्रा पर उचित नियन्त्रण से मौद्रिक नीति का सफल संचालन करने का कार्य केंद्रीय बैंक करते हैं। भारत में रिजर्व बैंक केन्द्रीय बैंक के रूप में उपर्युक्त कार्य करता है।

 

(9) निर्यात-आयात बैंक (Export-Import Bank or EXIM (Bank) – अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में आयात-निर्यात साख की वित्त व्यवस्था तथा भुगतानों की जोखिम से सुरक्षा के लिए ये बैंक विकसित हुए हैं।

 

(10) अन्तर्राष्ट्रीय बैंक (International Bank) – यातायात एवं संचार के साधनों के विकास ने विदेशी व्यापार, मौद्रिक एवं आर्थिक सहयोग तथा सांस्कृतिक सद्भावना को बल दिया है। मौद्रिक सहयोग के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ऋण उपलब्ध करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (I.M.F.), विश्व बैंक (World Bank), अन्तर्राष्ट्रीय वित्त निगम (I.F.C.), अन्तर्राष्ट्रीय विकास संघ (I.D.A.) आदि प्रमुख हैं। ये विदेशी मुद्रा में ऋण देते हैं, ऋण पत्र खरीदते हैं अथवा गारन्टी देकर ऋणों को बढ़ावा देते हैं।

 

(11) अन्य – विभिन्न राष्ट्रों में व्यापार, उद्योग आदि के लिए बैंकिंग व्यवस्था को सरल बनाने के लिए कटौती-गृह (Discount Houses), स्वीकृति गृह (Acceptance Houses) आदि क्रमशः बिलों की कटौती करते हैं या बहुत ही कम कमीशन पर स्वीकृति प्रदान कर साख विस्तार में सहयोग देते हैं। इंगलैंड में मर्चेन्ट बैंकर्स (Merchant Bankers) व्यापारिक बिलों की स्वीकृति का कार्य करते हैं। ये अपने इन कार्यों के लिए वित्तीय स्रोत- अंश पूंजी तथा अल्पकालीन ऋणों या जमाओं से जुटाते हैं। भारत में यूनिट ट्रस्ट (Unit Trust) भी एक बचत और विनियोग बैंक है।

 

इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्टीकरण ने बैंकों में भी विशिष्टीकरण (Specialisation) की प्रवृत्ति को प्रबल किया है। वे निरन्तर इस दिशा में अग्रसर हैं।

 

 

 

बैंक की विशेषताएं / एक अच्छी बैंकिंग प्रणाली की विशेषतायें

(Essentials of a Good Banking System)

 

आधुनिक युग में एक सुव्यवस्थित, सुविकसित तथा समन्वित बैंकिंग प्रणाली देश के आर्थिक विकास की अविभाज्य कड़ी है जो वित्तीय साधनों के संग्रह और उनके उत्पादक उपयोगों में प्रवाह से औद्योगिक, व्यापारिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है। इस दृष्टि से देश की एक अच्छी बैंकिंग प्रणाली में निम्न गुण एवं विशेषताओं का होना आवश्यक माना जाता है-

 

(1) अर्थव्यवस्था की परिस्थितियों के अनुकूल देश की बैंकिंग प्रणाली देश की परिस्थितियों के अनुकूल होनी चाहिये, जिसमें समाज के सभी वर्गों को आवश्यकतानुसार लाभ मिल सके, कृषि प्रधान देश में कृषि की आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिये। जैसे कृषि सहकारी बैंक, भूमि प्रबन्धक या भूमि विकास बैंक आदि का समुचित विकास हो । व्यापारिक तथा उद्योग प्रधान देश में व्यापारिक तथा औद्योगिक बैंकों का विकास होना चाहिए और अगर देश की अर्थव्यवस्था विदेशी व्यापार पर आश्रित अर्थव्यवस्था है हो विदेशी बैंकों का पर्याप्त विकास होना चाहिए।

 

(2) बचत संग्रह एवं पूंजी निर्माण को प्रोत्साहन देश की बैंकिंग व्यवस्था की दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि बैंकिंग व्यवस्था देश की धनी एवं निर्धन जनता सबकी को संग्रह करने में सक्षम हो। जैसे धनी लोगों का पूंजी विनियोग बैंक आकर्षित कर सकते हैं जबकि अल्प वर्ग बचतों को पोस्ट ऑफिस सेविंग खाता या व्यापारिक बैंक बचत खाता खोल कर आकर्षित करते हैं। बचतों को गतिमान करना एक अच्छी बैंकिग है

 

प्रणाली का गुण है। (3) वित्तीय साधनों की पर्याप्तता एक अच्छी बैंकिंग प्रणाली में देश की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए पर्याप्त वित्तीय साधन होने चाहिए ताकि साधनों के अभाव में आर्थिक विकास अवरुद्ध न हो।

 

(4) साख का समुचित नियन्त्रण- देश में साख निर्माण जहाँ एक ओर आर्थिक प्रगति को बढ़ावा देती है वहाँ अनियन्त्रित साख घातक सिद्ध होती है।

(5) बैंकिंग प्रणाली में समन्वय देश में बैंकिंग प्रणाली में इस प्रकार का सामंजस्य रहे जिससे अनावश्यक प्रतियोगिता न हो, वित्तीय साधनों में दोहरापन न रहे। समन्वित बैंकिंग प्रणाली में साधनों के प्राथमिकतानुसार उपयोग से योजनाबद्ध विकास को प्रोत्साहन मिलेगा और साधनों के उपयोग में सर्वाधिक आर्थिक लाभ मिलेगा।

 

(6) बैंकिंग प्रणाली का सन्तुलित विकास-एक अच्छी बैंकिंग प्रणाली वह है जिसमें अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में बैंकों का सन्तुलित विकास हुआ हो। अगर भारत पर दृष्टिपात करें तो पहले बैंकिंग व्यवस्था शहरी क्षेत्रों में ही विकसित हुई तथा ग्रामीण क्षेत्रों में विकास नगण्य रहा। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद सन्तुलित विकास के प्रयत्न तेजी से चालू हुए हैं। इसी प्रकार व्यापारिक बैंकों का तो काफी विस्तार हुआ है जबकि औद्योगिक, कृषि बैंक तथा विदेशी विनिमय बैंकों की प्रगति धीमी रही है।

 

 

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आधुनिक बैंकों के कार्य

 

(Functions of Modern Banks)

 

जैसाकि बैंकों के प्रकार बताते हुए स्पष्ट किया जा चुका है कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्टीकरण ने बैंकों के कार्यों में भी विशिष्टीकरण को जन्म दिया है।

 

(1) निक्षेप प्राप्त करना (Receiving Deposits) – बैंकों का प्रमुख कार्य जनता से रुपया प्राप्त कर भण्डार बनाना है जिसे वे बाद में उधार दे सकें। छोटी-छोटी मात्रा में व्यक्तिगत एवं संस्थागत बचते जमा कर बैंक अतुल धनराशि संग्रह कर लेते हैं। बैंक जनता से, सरकार से, अन्य बैंकों से जमा पर रुपया प्राप्त करते हैं।

 

(i) स्थायी जमा खाता (Fixed Deposit Account) – इसे निश्चित जमा तथा समयावधि जमा (Time Deposit) भी कहा जाता है। यह उन लोगों के लिए है जो निश्चित अवधि तक अपनी बचत को जमा करना चाहते हैं। उससे पहले उन्हें यह राशि प्राप्त नहीं होती। यह राशि 3 महीने, 6 महीने, एक वर्ष, 2, 3, 5, 10 वर्षों तथा लगभग 20 वर्षों तक की अवधि के लिए जमा होती है। इस प्रकार की जमाओं पर अपेक्षाकृत अधिक दर से ब्याज चुकाया जाता है। रुपया जमा कराने वाले को निश्चित जमा की रसीद मिलती है जिसमें भुगतान की अन्तिम तिथि, ब्याज की दर आदि शर्तों का संक्षिप्त विवरण होता है। अन्तिम तिथि को ब्याज व रकम लौटाई या पुनः जमा पर प्राप्त की जाती है। यह उन धनिक व्यक्तियों के लिये उपयुक्त है जो अधिक जोखिम उठाना नहीं चाहते तथा सुरक्षा के साथ-साथ बचत पर साधारण दर से अधिक ब्याज लेना चाहते हैं। ये खाते कभी-कभी अनिश्चित काल जमा (Indefinite Deposit) के रूप में भी होते हैं।

 

(ii) चालू खाता जमा (Current Account Deposit) – यह खाता व्यापारियों, व्यवसायियों एवं उद्योगपतियों के लिए उपयुक्त है जिन्हें अनेक भुगतान प्राप्त होते हैं तथा अनेक भुगतान करने पड़ते हैं। इस प्रकार के खाते में जब चाहे तब बैंकिंग कार्यावधि (Banking Working Hours) में रुपया जमा कराया जा सकता है तथा चैक आदि से निकाला जा सकता है। सामान्यतः इस प्रकार के खातों में जमा पर कोई ब्याज नहीं दिया जाता पर कुछ बड़े बैंक बहुत ही कम दर पर ब्याज चुकाते हैं और जमा से अधिक रुपया निकालने की भी सुविधा देते हैं, पर उस पर अपेक्षाकृत ब्याज की ऊँची दर वसूल की जाती है ताकि अनावश्यक उधार न जमाकर्ता को पास बुक व चैक-बुक दी जाती है।

 

(III) बचत खाता जमा (Saving Account Deposit) – इस प्रकार के जगा खाते अल्प बचतकर्ताओं को प्रोत्साहन देने के लिए खोले जाते हैं जिससे अल्प आय वालों की थोड़ी-थोड़ी बचतों से बैंक देश में पूँजी निर्माण को प्रोत्साहन दे सके तथा जमाकर्ताओं को बचत की प्रेरणा, बचतों की सुरक्षा तथा बचतों पर ब्याज का लाभ हो। जमा करने में कोई शर्त नहीं जब चाहे जमा करा सकते हैं पर वापिस निकालने में सामान्यतः कुछ शर्तें लगा दी जाती हैं। पर ये शर्तें इतनी कठोर नहीं होतीं कि बचत करने की प्रवृत्ति पर बुरा असर पड़े। ऐसे खाते नौकरी-पेशा लोगों एवं छोटे व्यापारियों के लिए उपयुक्त होते हैं। पश्चिमी देशों में बचत बैंक अलग है पर भारत में व्यापारिक बैंक ही इस कार्य को करते हैं। पोस्ट ऑफिस सेविंग्स खाता भी इसी का विभागीय रूप है।

 

(iv) घरेलू वचत खाता (Home Safe Deposit Account) – यह उन लोगों में बचत को प्रोत्साहन देकर साधनों के संग्रह का तरीका है जिनको बचत की आदत ही नहीं छोटे बच्चों और बड़ों सब में आय की सीमितता के बावजूद बचत की प्रेरणा के लिए घर पर ताला बन्द एक गुल्लक, तिजोरी या बचत डिब्बा दिया जाता है, जिसमें थोड़ी-थोड़ी कम रोज या प्रति सप्ताह जमा करने पर भी साल में एक अच्छी खासी रकम हो जाती है, कभी-कभी बैंक के कर्मचारी महीने के प्रथम सप्ताह में घर-घर घूम कर ऐसी बचतें प्राप्त कर नाहकों को और स्वयं को लाभान्वित करते हैं। भारत के शहरों में यह प्रथा डाकघर बचत खातों व बैंकों में प्रचलित हुई है। इसमें ब्याज की दर बहुत कम तथा निकालने की शर्तें कुछ कठोर होती हैं।

 

(2) ऋण देना (Advancing of Loans ) – बैंकों का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य ऋण धार देना है। जितनी रकम जमा पर प्राप्त की जाती है उसका अधिकांश भाग उधार या अग्रिम देकर लाभ कमाया जाता है। बैंक कम ब्याज दर पर रुपया जमा करते हैं और अधिक ब्याज दर पर उधार देते हैं। उधार देते समय धन का सुरक्षा का भी ध्यान रखा जाता है। साधारणतः उधार या अग्रिम की निम्न विधियाँ हैं—

 

(i) ऋण एवं अग्रिम (Loans & Advances) – उचित जमानत के आधार पर बैंक निश्चित अवधि के लिए किसी कार्य विशेष हेतु ऋण एवं अग्रिम देते हैं। सामान्यतः यह राशि बैंक नकद न देकर उस राशि को ऋणी के खाते में जमा कर देता है जिससे वह उस राशि में से समय-समय पर आवश्यकतानुसार धन निकाल सके। सम्पूर्ण ऋण की वापसी पर हो ऋण का अन्त माना जाता है। ब्याज कुल रकम पर लगता है। ब्याज की दर अधिक होती है और जमानत पर ही सुरक्षा के अनुसार ये ऋण दिये जाते हैं।

 

(ii) अधिविकर्ष (Overdraft) – जब बैंक अपने चालू खाते वाले प्राहकों को ही उनकी जमा रकम से अधिक रुपया निकालने की अनुमति देता है तो इसे अधिविकर्ष के नाम से पुकारा जाता है। यह केवल अल्पकाल के लिए विश्वासपात्र चालू खाते वाले माहकों को हो प्रदान की गई सुविधा होती है। यह ध्यान रखने योग्य है कि ऋण एवं अग्रिम किसी को भी दिया जा सकता है पर अधिविकर्ष का अधिकार केवल चालू खाता जमाकर्ता को हो मिलता है। अधिविकर्ष में सरकार को नीति, केन्द्रीय बैंक की ऋण नीति के साथ-साथ ग्राहक की साख का भी ध्यान रखा जाता है।

 

(iii) नकद साख (Cash Credit)– इसके अन्तर्गत बैंक, व्यापारिक माल, स्वीकृत प्रतिभूतियों, अंश व बॉण्ड आदि की जमानत पर ग्राहकों को निश्चित मात्रा में ऋण देता है। ग्राहक के खाते को रकम जमा कर ली जाती है और जमानत में दी गई वस्तुओं को बैंक अपने अधिकार एवं संरक्षण में लेता है। ग्राहक ऋण समय-समय पर चुकाता रहता है और अपनी जमानत की वस्तुएं लेता रहता है। बकाया राशि का ही ब्याज लिया जाता है। नकद साख और अधिविकर्ष में यह मौलिक अन्तर है कि नकद साख किसी को भी स्वीकार को जा सकती है पर अधिविकर्ष केवल चालू खाता रखने वाले व्यक्तियों को ही दिये जाते हैं। नकद साख जमानत पर एक वर्ष के लिए तथा कुछ अधिक व्याज दर पर दी जाती है जबकि अधिविकर्ष बिना जमानत के आपातकाल के लिए तथा नकद साख के मुकाबले कम व्याज पर दिये जाते हैं।

 

(iv) बिलों व हण्डियों की कटौती या भुनाना (Discounting of the Bills & Hundies) – बैंकों द्वारा अपनी जमाओं का सर्वाधिक भाग व्यावसायिक बिलों व के रूप में विनियोजित होता है। ये वे साख-पत्र होते हैं जो उधार बेचे गए माल के भुगतान के वायदे या आदेश के रूप में निश्चित अवधि में देय होते हैं। विक्रेता भुगतान जल्द नकद मैं चाहता है जबकि क्रेता भुगतान निश्चित अवधि के बाद देना चाहता है। बैंक इन दोनों की इच्छा पूर्ति करते हैं। विक्रेता बिल या हुण्डी को बैंक से कटौती करा लेता है या भुनाता है। बैंक इसमें उल्लेखित राशि में से भुगतान अवधि तक का ब्याज काट कर विक्रेता को तत्काल नकद भुगतान कर देता है और देव तिथि को क्रेता से भुगतान प्राप्त कर लेता है।

 

(3) बैंकों द्वारा साख निर्माण (Creation of Credit) – बैंक जनता से रुपया जमा पर प्राप्त करते और उधार देते हैं। इससे जहाँ एक ओर जमाओं से ऋण उत्पन्न होते हैं वहाँ दूसरी ओर ऋणों से जमाओं को जन्म मिलता है। यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। इससे बैंक अपने पास नकद जमाओं से कहीं अधिक ऋण देने में समर्थ हो जाते हैं। बैंक नोटों का निर्गमन करके भी साख का निर्माण करते हैं। भारत में केन्द्रीय बैंक रिजर्व बैंक) नोट निर्गमन कर साख का निर्माण करता है। दूसरे बैंक नहीं।

 

(4) नोट निर्गमन का कार्य (Issue of Paper Currency)- पत्र- मुद्रा विकास की प्रारम्भिक अवस्था में अनेक व्यापारिक बैंक नोट निर्गमन का कार्य करते थे। भारत में भी 1935 से पूर्व इम्पीरियल बैंक (अब स्टेट बैंक) व अन्य बड़े प्रेसीडेन्सी बैंक नोट निर्गमन का कार्य करते थे पर 1935 से रिजर्व बैंक को ही नोट निर्गमन करने का एकाधिकार है। अब विश्व के प्रायः सभी देशों में नोट निर्गमन कार्य व्यापारिक बैंकों के हाथ में न होकर प्रत्येक देश के केन्द्रीय बैंक के हाथ में है।

 

(5) बैंकों के एजेन्सी अथवा प्रतिनिधित्व सम्बन्धी कार्य (Agency Representative Functions) – इसे अभिकर्त्ता कार्य भी कहा जाता है क्योंकि आधुनिक बैंक अपने ग्राहकों के प्रतिनिधि के रूप में अनेक सेवाएं प्रदान करते हैं। कुछ सेवाएँ निःशुल्क और कुछ सेवायें साधारण शुल्क पर प्रदान की जाती है। प्रतिनिधित्व सम्बन्धी मुख्य कार्य निम्न हैं-

 

(i) चैक, हुण्डी व बिलों के भुगतान संग्रहण (Collection) बैंक ग्राहकों के प्रतिनिधि के रूप में उनके द्वारा प्राप्त चैकों, बिलों, हुडियों तथा अन्य साख-पत्रों का भुगतान इकट्ठा करता है तथा संग्रहण कर ग्राहकों के खाते में जमा कर देता है। स्थानीय सेवाएँ प्रायः निःशुल्क और बाहर (Out Station) के साख पत्रों के लिए शुल्क वसूल किया जाता है।

 

(ii) ग्राहकों के भुगतान प्राप्त करना— उपर्युक्त साख पत्रों के भुगतान के अलावा भी बैंक प्रतिनिधि के रूप में माहकों के लाभांश, ब्याज, किराया, कमीशन आदि की राशि एकत्रित कर ग्राहकों के खाते में जमा कर देता है।

 

(iii) साख पत्रों का भुगतान प्राहकों द्वारा जिन बैंकों, साख-पत्र, बिलों व ण्डियों का भुगतान अन्तिम तिथि पर दूसरे ऋणदाताओं को करना है, बैंक भुगतान कर रकम ग्राहकों के नाम लिख देता है।

 

(iv) ग्राहकों के अन्य भुगतान चुकाना

 

(v) अंशों तथा प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय-बैंक प्रतिनिधि के रूप में अपने माहकों के लिए अशों तथा प्रतिभूतियों का क्रय करता है और उन्हें आवश्यकता न होने पर बेच देता है क्योंकि शेयर बाजार से ग्राहकों की अपेक्षा बैंक भलीभांति परिचित हो नहीं रहते बल्कि उनका शेयर बाजारों के दलालों व कमीशन एजेन्टों से निकटतम सम्पर्क रहता है। इन कार्य के लिए बैंक कुछ कमीशन वसूल करते हैं।

 

(vi) धन हस्तान्तरण एवं प्रेषण (Remittance) – बैंकों द्वारा अपने ग्राहकों की सुविधा के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर रकम भेजने की व्यवस्था की जाती है। नकटा धन जमा कराकर बैंक ड्राफ्ट रूप में दूसरी जगह भेजना या एक स्थान से दूसरे स्थान पर उसी व्यक्ति के खाते में धनराशि का हस्तान्तरण करना बैंकों की महत्वपूर्ण सेवा है।

 

(vii) अगोपन (Underwriting) बैंक अपने व्यावसायिक पाहकों द्वारा अंशापत्र प्रतिभूतियों की बिक्री का उत्तरदायित्व स्वयं ले लेते हैं। अगर कभी निर्धारित अवधि में कम्पनी अंश-पूंजी ऋण पत्र बेचने में असमर्थ रहे तो बैंक खरीद लेते है। इससे कम्पनी को तो समय पर धन प्राप्त हो जाता है और बैंक को मिलता है। ” (MI) ट्रस्टी प्रवन्धक व मुख्तयार (Attorney) के रूप में काम करना बैंक अपने ग्राहकों के आदेशों पर उनकी सम्पत्ति को व्यवस्था, विभाजन या प्रबन्ध का दायित्व उड़ाता है और उनकी वसीयतों को मृत्युपरान्त कार्यान्वित करता है। न्यायालय व अन्य आदेशित कार्यों में भी प्रतिनिधित्व करता है।

(6) सामान्य उपयोगी सेवायें (General Utility Services) – बैंक के सामान्य कार्यों में भी अनेक कार्यों का समावेश होता है, जो वे अपने सहायक कार्यों के रूप में करते विदेशी मुद्रा का क्रय-विक्रय-साधारणतः विदेशी विनिमय के क्रय-विक्रय का कार्य विदेशी विनिमय बैंक (Foreign Exchange Bank) करते हैं। परन्तु जिन देशों में विदेशी विनिमय बैंकों का पर्याप्त विकास नहीं हो पाता है वहीं व्यापारिक बैंक भी इस कार्य को करते हैं। भारत में भी विदेशी विनिमय क्रय-विक्रय का कार्य या तो व्यापारिक बैंकों या विदेशी बैंकों की शाखाओं द्वारा किया जाता है।

 

(ii) आन्तरिक एवं विदेशी व्यापार का अर्थ प्रबन्ध—बैंकों के अल्पकालीन ऋण में व्यापार के अर्थ प्रबन्ध का कार्य महत्त्वपूर्ण है। वे यह कार्य बिलों, हुण्डियों, साख पत्रों के प-विक्रय या कटौती द्वारा करते हैं।

 

(III) यात्री बँक एवं साख पत्रों की व्यवस्था बैंक अपने ग्राहकों को यात्री चैक व साख-पत्र देकर देश-विदेश में उनकी यात्रा की वित्त-व्यवस्था करते हैं। यहां धन जमा किया जाता है और देश-विदेश में जहाँ वे भुगतान प्राप्त करना चाहें, पूर्व नियोजित व्यवस्था के अनुसार भुगतान प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार बैंक धन को साथ लेकर चलने की जोखिम या विदेशी मुद्रा के परिवर्तन की समस्याओं से छुटकारा दिलाते हैं।

 

(iv) सम्पत्ति या मूल्यवान वस्तुओं की सुरक्षा बैंक अपने ग्राहकों को उनके सोने-चांदी के जेवरात, जोखिमपूर्ण प्रलेखों (Documents), कम्पनियों के हिस्से, ऋण-पत्रों को साधारण वार्षिक शुल्क पर लॉकर्स (Lockers) की व्यवस्था से सुरक्षित रखते हैं जिससे डकैती एवं नष्ट होने आदि का भय नहीं रहता।

 

(v) आर्थिक आंकड़ों का संकलन

(vi) वित्तीय विषयों पर परामर्श-बैंक पूर्णतः वित्तीय संस्थाएँ होने से वित्तीय विशेषज्ञों की सेवाओं का नियोजन करते हैं और अपने माहकों को भी वित्तीय मामलों परउपयोगी सलाह देते हैं।

 

 

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